मदर टेरेसा जीवनी - Biography of Mother Teresa in Hindi Jivani
नाम : अग्नेसे गोंकशी बोंजशियु।
जन्म : 27 अगस्त, 1910 युगोस्लाविया।
पिता : द्रना बोयाजु। (कॅथ्लिक)
माता : निकोला बोयाजु।
मृत्यु : 5 सितम्बर, 1997
वर्ष 1946 में उन्होंने गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों की जीवनपर्यांत मदद करने का मन बना लिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फॅमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गो की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहमपट्टी की और उनको दवाइयां दीं।धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इन लोगों में देश के उच्च अधिकारी और भारत के प्रधानमंत्री भी शामिल थे, जिन्होंने उनके कार्यों की सराहना की।मदर टेरेसा के अनुसार, इस कार्य में शुरूआती दौर बहुत कठिन था। वह लोरेटो छोड़ चुकी थीं इसलिए उनके पास कोई आमदनी नहीं थी – उनको अपना पेट भरने तक के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी। जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर उनके मन में बहुत उथल-पथल हुई, अकेलेपन का एहसास हुआ और लोरेटो की सुख-सुविधायों में वापस लौट जाने का खयाल भी आया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य भूखों, निर्वस्त्र, बेघर, लंगड़े-लूले, अंधों, चर्म रोग से ग्रसित और ऐसे लोगों की सहायता करना था जिनके लिए समाज में कोई जगह नहीं थी।‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ का आरम्भ मात्र 13 लोगों के साथ हुआ था पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय (1997) 4 हजार से भी ज्यादा ‘सिस्टर्स’ दुनियाभर में असहाय, बेसहारा, शरणार्थी, अंधे, बूढ़े, गरीब, बेघर, शराबी, एड्स के मरीज और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों की सेवा कर रही हैंमदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले । ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था जिन्हें समाज ने बाहर निकाल दिया हो। निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई।
सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई।जब वह भारत आईं तो उन्होंने यहाँ बेसहारा और विकलांग बच्चों और सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आँखों से देखा। इन सब बातों ने उनके ह्रदय को इतना द्रवित किया कि वे उनसे मुँह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं। इसके पश्चात उन्होंने जनसेवा का जो व्रत लिया, जिसका पालन वो अनवरत करती रहीं।
मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (1980) से अलंकृत किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष 1985 में मेडल आफ़ फ्रीडम 1985 से नवाजा। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार ग़रीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। मदर तेरस ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया।
बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके ह्रदय की परेशानी और बढ़ गयी। इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में कार्यरत थीं। मानव सेवा और ग़रीबों की देखभाल करने वाली मदर टेरेसा को पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में “धन्य” घोषित किया।
मदर टेरेसा जीवनी - Biography of Mother Teresa in Hindi Jivani
बुधवार, 24 जुलाई 2019
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मदर टेरेसा जीवनी - Biography of Mother Teresa in Hindi Jivani
जन्म : 27 अगस्त, 1910 युगोस्लाविया।
पिता : द्रना बोयाजु। (कॅथ्लिक)
माता : निकोला बोयाजु।
मृत्यु : 5 सितम्बर, 1997
प्रारंभिक जीवन :
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरेसा का वास्तविक नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’ था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी उनके पिता परलोक सिधार गए, जिसके बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। उनके जन्म के समय उनकी बड़ी बहन की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। वह एक सुन्दर, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढाई के साथ-साथ, गाना उन्हें बेहद पसंद था। वह और उनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिका थीं। ऐसा माना जाता है की जब वह मात्र बारह साल की थीं तभी उन्हें ये अनुभव हो गया था कि वो अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगायेंगी और 18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला ले लिया। १९७० तक वे गरीबों और असहायों के लिए अपने मानवीय कार्यों के लिए प्रसिद्द हो गयीं, माल्कोम मुगेरिज के कई वृत्तचित्र और पुस्तक जैसे समथिंग ब्यूटीफुल फॉर गॉड में इसका उल्लेख किया गया। इन्हें १९७९ में नोबेल शांति पुरस्कार और १९८० में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा के जीवनकाल में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी का कार्य लगातार विस्तृत होता रहा और उनकी मृत्यु के समय तक यह १२३ देशों में ६१० मिशन नियंत्रित कर रही थीं। इसमें एचआईवी/एड्स, कुष्ठ और तपेदिक के रोगियों के लिए धर्मशालाएं/ घर शामिल थे और साथ ही सूप, रसोई, बच्चों और परिवार के लिए परामर्श कार्यक्रम, अनाथालय और विद्यालय भी थे।1928 में केवल 18 साल की उम्र में उन्होंने लोरेटो बहनों के साथ रहने के लिये घर छोड़ दिया था, वही मदर टेरेसा इंग्लिश भी सीखती थी और ईसाई धर्म प्रचारक बनने की राह में चल पड़ी। लोरेटो बहाने भारत में बच्चो को पढ़ाने के लिये इंग्लिश भाषा का उपयोग करते थे। घर से निकालने के बाद उन्होंने दोबारा कभी अपनी बहनों और अपनी माँ को नही देखा था। 1934 तक उनका परिवार स्कोप्जे में ही रहता था और इसके बाद वे अल्बानिया के टिराना में चले गए थे इसके बाद सन 1929 में मदर टेरेसा भारत आई और दार्जिलिंग में उन्होंने शिक्षा ग्रहण की, वही हिमालय की पहाडियों के पास सेंट टेरेसा स्कूल में वे बंगाली सीखी और वहाँ बच्चो को पढ़ाती थी 24 मई 1931 को उन्हें पहली बार सन्यासिनी की पदवी मिली थी। और इसके बाद उन्होंने अपना मूल नाम बदलकर टेरेसा ही रखा।मदर टेरेसा एक रोमन कैथोलिक सन्यासिनी थी, जिन्होंने अपने जीवन को गरीबो और जरुरतमंदो की सहायता करने में ही व्यतीत किया। उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर समय काल्चुता में ही बिताया, जहाँ उन्होंने कई समाजसेवी संस्थाओ की स्थापना भी की। 1979 में ही टेरेसा को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और तभी से वह काफी लोकप्रिय बन गयी।उनका भगवान में बहुत भरोसा था। उनके पास बहुत पैसा या संपत्ति नहीं थी लेकिन उनके पास एकाग्रता, विश्वास, भरोसा और ऊर्जा थी जो खुशी से उन्हें गरीब लोगों की मदद करने में सहायता करती थी। निर्धन लोगों की देख-भाल के लिये सड़कों पर लंबी दूरी वो नंगे पैर चलकर तय करती थी। लगातार कार्य और कड़ी मेहनत ने उनको थका दिया था फिर भी वो कभी हार नहीं मानी।भारत आकर उन्होंने दीन-दुखियों और सामाजिक तिरस्कार से जूझते हुए लोगों को एक मां का सच्चा प्यार दिया । कोढ़ी, अपाहिज, वृद्ध और गरीब बच्चों के लिए मदर टेरेसा ईश्वर का प्रतिरूप बनी । जिन कोढ़ियों के शरीर से मवाद रिसता था, घावों पर मक्खियां भिनभिनाती थी, जो नित प्रति मृत्यु की अभिलाषा में जीवित थे, जिन्हें समाज ने तिरस्कृत किया, उनके समीप से गुजरना भी उगम उगदमी के लिए दुष्कर था, परंतु मदर टेरेसा साधारण संसारी नहीं थीं । उन्होंने उन कोढ़ियों को न सिर्फ छुआ, बल्कि उनकी सेवा-सुश्रुषा भी की।बड़े ही तन्मय भाव से, जिस प्रकार ईश्वर की भक्ति में लीन भक्त । मदर टेरेसा दीन-दुखियों की भक्त थीं, उन्हें उनके शरीर से पूणा नहीं होती थी । उनके हृदय में दया उगैर प्रेम का ऐसा सागर उमड़ता था कि रोगी स्वयं को निरोगी समझने लगते थे । मदर टेरेसा का एक ही धर्म था, मानव सेवा । सर्वधर्म, समभाव की भावना को वे दीनहित में समाहित रखती थीं । उनके सेवा-उद्देश्य वाले जीवन में सैकड़ों बाधाएं उत्पन्न हुई, परंतु उन्होंने डटकर इन बाधाओं का मुकाबला किया । हर अच्छे कार्य के आरम्भ में बाधाएं आनी स्वाभाविक हैं । बाधाएं ही उद्देश्य की तरफ अग्रसर होने का साहस देती हैं । मदर टेरेसा ने ऐसी अनेक बाधाओं को अपनी दृढ़ता, सेवा और स्नेह से पराजित किया ।
मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी
वर्ष 1946 में उन्होंने गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों की जीवनपर्यांत मदद करने का मन बना लिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फॅमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गो की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहमपट्टी की और उनको दवाइयां दीं।धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इन लोगों में देश के उच्च अधिकारी और भारत के प्रधानमंत्री भी शामिल थे, जिन्होंने उनके कार्यों की सराहना की।मदर टेरेसा के अनुसार, इस कार्य में शुरूआती दौर बहुत कठिन था। वह लोरेटो छोड़ चुकी थीं इसलिए उनके पास कोई आमदनी नहीं थी – उनको अपना पेट भरने तक के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी। जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर उनके मन में बहुत उथल-पथल हुई, अकेलेपन का एहसास हुआ और लोरेटो की सुख-सुविधायों में वापस लौट जाने का खयाल भी आया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य भूखों, निर्वस्त्र, बेघर, लंगड़े-लूले, अंधों, चर्म रोग से ग्रसित और ऐसे लोगों की सहायता करना था जिनके लिए समाज में कोई जगह नहीं थी।‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ का आरम्भ मात्र 13 लोगों के साथ हुआ था पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय (1997) 4 हजार से भी ज्यादा ‘सिस्टर्स’ दुनियाभर में असहाय, बेसहारा, शरणार्थी, अंधे, बूढ़े, गरीब, बेघर, शराबी, एड्स के मरीज और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों की सेवा कर रही हैंमदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले । ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था जिन्हें समाज ने बाहर निकाल दिया हो। निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई।
सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई।जब वह भारत आईं तो उन्होंने यहाँ बेसहारा और विकलांग बच्चों और सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आँखों से देखा। इन सब बातों ने उनके ह्रदय को इतना द्रवित किया कि वे उनसे मुँह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं। इसके पश्चात उन्होंने जनसेवा का जो व्रत लिया, जिसका पालन वो अनवरत करती रहीं।
सम्मान और पुरस्कार
मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (1980) से अलंकृत किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष 1985 में मेडल आफ़ फ्रीडम 1985 से नवाजा। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार ग़रीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। मदर तेरस ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया।
मृत्यु
बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके ह्रदय की परेशानी और बढ़ गयी। इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में कार्यरत थीं। मानव सेवा और ग़रीबों की देखभाल करने वाली मदर टेरेसा को पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में “धन्य” घोषित किया।
मदर टेरेसा के अनमोल विचार
- मैं चाहती हूँ कि आप अपने पड़ोसी के बारे में चिंतित रहें। क्या आप अपने पड़ोसी को जानते हैं?
- यदि हमारे बीच शांति की कमी है तो वह इसलिए क्योंकि हम भूल गए हैं कि हम एक दूसरे से संबंधित हैं।
- यदि आप एक सौ लोगों को भोजन नहीं करा सकते हैं, तो कम से कम एक को ही करवाएं।
- यदि आप प्रेम संदेश सुनना चाहते हैं तो पहले उसे खुद भेजें। जैसे एक चिराग को जलाए रखने के लिए हमें दिए में तेल डालते रहना पड़ता है।
- अकेलापन सबसे भयानक ग़रीबी है।
- अपने क़रीबी लोगों की देखभाल कर आप प्रेम की अनुभूति कर सकते हैं।
- अकेलापन और अवांछित रहने की भावना सबसे भयानक ग़रीबी है।
- प्रेम हर मौसम में होने वाला फल है, और हर व्यक्ति के पहुंच के अन्दर है।
- आज के समाज की सबसे बड़ी बीमारी कुष्ठ रोग या तपेदिक नहीं है, बल्कि अवांछित रहने की भावना है।
- प्रेम की भूख को मिटाना, रोटी की भूख मिटाने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।
- अनुशासन लक्ष्यों और उपलब्धि के बीच का पुल है।
- सादगी से जियें ताकि दूसरे भी जी सकें।
- प्रत्येक वस्तु जो नहीं दी गयी है खोने के सामान है।
- हम सभी महान कार्य नहीं कर सकते लेकिन हम कार्यों को प्रेम से कर सकते हैं।
- हम सभी ईश्वर के हाथ में एक कलम के सामान है।
- यह महत्वपूर्ण नहीं है आपने कितना दिया, बल्कि यह है की देते समय आपने कितने प्रेम से दिया।
- खूबसूरत लोग हमेशा अच्छे नहीं होते। लेकिन अच्छे लोग हमेशा खूबसूरत होते हैं।
- दया और प्रेम भरे शब्द छोटे हो सकते हैं लेकिन वास्तव में उनकी गूँज अन्नत होती है।
- कुछ लोग आपकी ज़िन्दगी में आशीर्वाद की तरह होते हैं तो कुछ लोग एक सबक की तरह।
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