Dr. Rajendra Prasad Biography in hindi
जीवन परिचय :
देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद |
ये अत्यन्त मेधावी छात्र थे। इन्होंने कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) विश्वविद्यालय से एम. ए. और कानून की डिग्री एल. एल. बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले राजेन्द्र प्रसाद ने मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में अध्यापन कार्य किया।
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इन्होंने सन् 1911 में वकालत शुरू की और सन् 1920 तक कोलकाता और पटना में वकालत का कार्य किया। उसके पश्चात् वकालत छोड़कर देश सेवा में लग गए। इनका झुकाव प्रारम्भ से ही राष्ट्रसेवा की ओर था।
सन् 1917 में गाँधी जी के आदर्शों और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर इन्होंने चम्पारण के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और वकालत छोड़कर पूर्णरूप से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े।
अनेक बार जेल की यातनाएँ भी भोगी। इन्होंने विदेश जाकर भारत के पक्ष को विश्व के सम्मुख रखा। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापति और सन् 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। 'सादा जीवन उच्च विचार' इनके जीवन का मूल मन्त्र था। सन् 1962 में इन्हें भारत रत्न' से अलंकृत किया गया। जीवनपर्यन्त हिन्दी और हिन्दुस्तान की सेवा करने वाले डॉ. प्रसाद जी का देहावसान 28 फरवरी, 1963 में हो गया।
रचनाएँ:
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-भारतीय शिक्षा, गाँधीजी की देन, शिक्षा और संस्कृत साहित्य, मेरी आत्मकथा, बापूजी के कदमों में, मेरी यूरोप यात्रा, संस्कृत का अध्ययन, चम्पारण में महात्मा गाँधी और खादी का अर्थशास्त्र आदि।
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भाषा-
शैली डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की भाषा सरल, सुबोध और व्यावहारिक है। इनके निबन्धों में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेज़ी, बिहारी शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त जगह-जगह ग्रामीण कहावतों और शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन्होंने भावानुरूप छोटे-बड़े वाक्यों का प्रयोग किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की शैली भी उनकी भाषा की तरह ही आडम्बर रहित है । इसमें इन्होंने आवश्यकतानुसार ही छोटे-बड़े वाक्यों का प्रयोग किया है। इनकी शैली के मुख्य रूप से दो रूप प्राप्त होते हैं- साहित्यिक शैली और भाषण शैली।
हिन्दी साहित्य में स्थान:
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 'सरल-सहज भाषा और गहन विचारक' के रूप में सदैव स्मरण किए जाएंगे। यही सादगी इनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होती है। हिन्दी के आत्मकथा साहित्य में सम्बन्धित सुप्रसिद्ध पुस्तक 'मेरी आत्मकथा' का विशेष स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और उत्साही प्रचारक थे, जिन्होंने हिन्दी की जीवनपर्यन्त सेवा की। इनकी सेवाओं का हिन्दी जगत् सदैव ऋणी रहेगा।
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धन्यवाद..
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