कर्तार सिंह सराभा जीवनी - Biography of Kartar Singh Sarabha in Hindi Jivani
इन्हीं दिनों इन्होंने बर्कले में भारतीय छात्रों के एक नालंदा क्लब को ज्वाइन कर लिया. यहीं से इनके अंदर से देशभक्ति भावनाओं को जाग्रत करने का मौका मिला.
इसी सभा में 'गदर' नाम से एक समाचार पत्र निकालने का निश्चय किया गया, जो भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करे। इसे कई भाषाओं में प्रकाशित किया जाये और जिन-जिन देशों में भारतवासी रहते हैं, उन सभी में इसे भेजा जाये। फलत: 1913 ई. में 'गदर' प्रकाशित हुआ। इसके पंजाबी संस्करण के सम्पादक का कार्य सराभा ही करते थे।पंजाब में विद्रोह चलाने के दौरान उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ नज़दीकी बढ़ानी शुरू की. भारत के गुलाम हालातों पर उनकी पैनी नज़र स्पष्ट विचारों का निर्माण कर रही थी. राजबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ अपने विचार साझे किए और क्रांतिकारियों की एक सेना बनाने का सुझाव दिया. बाद में रासबिहारी बोस ने अपने आस-पास के माहौल को देखते हुए करतार सिंह को लाहौर छोड़कर काबुल चले जाने की सलाह दी. उन्होंने काबुल जाने की तय कर ली लेकिन वज़ीराबाद तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने सोचा कि भागने से बेहतर है मैं फांसी के तख़्ते पर चढ़ जाऊं. इसी सोच को अंजाम देते हुए स्वयं जा कर ख़ुद को पुलिस के हवाले कर दिया. बाद में उन पर कई मुकदमें चले. जिसके परिणाम स्वरूप जज ने उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई.
शहीद होने से पहले इन्होंने कहा था कि 'अगर कोई पुर्नजन्म का सिद्धांत है तो मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि जब तक मेरा देश आज़ाद न हो मैं भारत की स्वतंत्रता में अपना जीवन न्यौछावर करता रहूं'. 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह ने मात्र 19 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया.
कर्तार सिंह सराभा जीवनी - Biography of Kartar Singh Sarabha in Hindi Jivani
मंगलवार, 23 जुलाई 2019
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कर्तार सिंह सराभा जीवनी - Biography of Kartar Singh Sarabha in Hindi Jivani
प्रारंभिक जीवन :
सराभा, पंजाब के लुधियाना ज़िले का एक चर्चित गांव है। लुधियाना शहर से यह करीब पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है। गांव बसाने वाले रामा व सद्दा दो भाई थे। गांव में तीन पत्तियां हैं-सद्दा पत्ती, रामा पत्ती व अराइयां पत्ती। सराभा गांव करीब तीन सौ वर्ष पुराना है और १९४७ से पहले इसकी आबादी दो हज़ार के करीब थी, जिसमें सात-आठ सौ मुसलमान भी थे। इस समय गांव की आबादी चार हज़ार के करीब है।कर्तार सिंह का जन्म २४ मई १८९६ को माता साहिब कौर की कोख से हुआ। उनके पिता मंगल सिंह का कर्तार सिंह के बचपन में ही निधन हो गया था। कर्तार सिंह की एक छोटी बहन धन्न कौर भी थी। दोनों बहन-भाइयों का पालन-पोषण दादा बदन सिंह ने किया। कर्तार सिंह के तीन चाचा-बिशन सिंह, वीर सिंह व बख्शीश सिंह ऊंची सरकारी पदवियों पर काम कर रहे थे। कर्तार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना के स्कूलों में हासिल की। बाद में उसे उड़ीसा में अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल प्रांत का हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था। वहां के माहौल में सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ना भी शुरू किया। दसवीं कक्षा पास करने के उपरांत उसके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया और १ जनवरी १९१२ को सराभा ने अमेरिका की धरती पर पांव रखा। उस समय उसकी आयु पंद्रह वर्ष से कुछ महीने ही अधिक थी। इस उम्र में सराभा ने उड़ीसा के रेवनशा कॉलेज से ग्यारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। सराभा गांव का रुलिया सिंह 1908 में ही अमेरिका पहुंच गया था और अमेरिका-प्रवास के प्रारंभिक दिनों में सराभा अपने गांव के रुलिया सिंह के पास ही रहा।
अमेरिका जाकर बन गए क्रांतिकारी:
जुलाई, 1912 को करतार सिंह सराभा उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को चले गए. यहां उन्होंने बर्कले में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया और केमिस्ट्री में डिग्री के लिए नामांकन करा लिया.इन्हीं दिनों इन्होंने बर्कले में भारतीय छात्रों के एक नालंदा क्लब को ज्वाइन कर लिया. यहीं से इनके अंदर से देशभक्ति भावनाओं को जाग्रत करने का मौका मिला.
हथियार लेकर निकले क्रांतिकारी:
जल्द ही प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया और अंग्रेजों की खराब होती हालत को देखकर क्रांतिकारी उनकी कमजोरी का फायदा उठाना चाहते थे.ऐसे में 5 अगस्त 1914 को अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की गई और लगभग 6000 क्रांतिकारी अपना झंडा उठाकर एकजुट हुए और हथियार, गोला-बारुद खरीदकर क्रांति के केंद्र भारत की ओर निकल पड़े. ये खबर अंग्रेजों को लग गई और उन्होंने इस गदर को दबाने के प्रयास शुरू कर दिए. इसी बीच कई क्रांतिकारियों को भारत पहुंचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन करतार अंग्रेजों की पकड़ से दूर रहे और भारत पहुंचने में कामयाब हो गए.अब ये कोलकाता पहुंचकर अपनी योजना को विस्तार देने लगे. यहीं करतार सिंह सराभा ने बंगाल के क्रांतिकारियों से मुलाकात की और फिर इनकी मुलाकात वाराणसी में रासबिहारी बोस से हुई.उन्होंने 20 हजार गदर क्रांतिकारियां के आने की सूचना दी और क्रांति की योजना बनाने लगे. अब फिर से ये खबर अंग्रेजों को लग गई और उन्होंने क्रांतिकारियों को पकड़ने का अभियान छेड़ दिया. करतार सिंह फिर भी अंग्रेजों की पहुंच से दूर थे और इन्होंने अंग्रेजों की सेना में काम कर रहे भारतीयों को एकजुट करना शुरू कर दिया.करतार एक पूरी हथियारबंद भारतीय सेना अंग्रेजों से मुकाबले के लिए खड़ी करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने आगरा, मेरठ, वाराणसी, इलाहाबाद, अंबाला, लाहौर और रावलपिंडी की कैंट में भारतीय सैनिकों को अपने अभियान से जोड़ना प्रारंभ कर दिया.
अग्रेजी गिरफ्तार में आए करतार सिंह:
मियां मीर और फिरोजपुर छावनी पर हमले की योजना तैयार थी, 21 फरवरी, 1915 को क्रांति का दिन चुना गया, वहीं अंबाला में सैन्य विद्रोह होना था. हालांकि, दुर्भाग्य से 15 फरवरी को ही इस योजना का भंडाफोड़ हो गया और अंग्रेज सरकार ने सभी क्रांतिकारियों के नाम गिरफ्तारी आदेश जारी कर दिया.रासबिहारी बोस जापान भाग गए और बाकि साथी भी भूमिगत हो गए, लेकिन करतार सिंह हार मानने वालों में से नहीं थे. इससे पहले कि करतार कोई और योजना बना पाते, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.लाहौर की एक अदालत में करतार सिंह पर विद्रोह के लिए उकसाने और देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और आखिर में 16 नवंबर 1915 को 19 साल की छोटी सी उम्र में फांसी पर लटका दिया गया. इसके साथ ही भारत की आजादी के एक युवा हमेशा के लिए दुनिया से चले गए.करतार सिंह वह भारतीय क्रांतिकारी हैं जिन्हें आज बहुत ही कम लोग जानते हैं. हालांकि देश की आजादी की बात जब भी की जाती है करतार सिंह का नाम उसमें जरूर लिया जाता है.
सम्पादन कार्य:
इसी सभा में 'गदर' नाम से एक समाचार पत्र निकालने का निश्चय किया गया, जो भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करे। इसे कई भाषाओं में प्रकाशित किया जाये और जिन-जिन देशों में भारतवासी रहते हैं, उन सभी में इसे भेजा जाये। फलत: 1913 ई. में 'गदर' प्रकाशित हुआ। इसके पंजाबी संस्करण के सम्पादक का कार्य सराभा ही करते थे।पंजाब में विद्रोह चलाने के दौरान उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ नज़दीकी बढ़ानी शुरू की. भारत के गुलाम हालातों पर उनकी पैनी नज़र स्पष्ट विचारों का निर्माण कर रही थी. राजबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ अपने विचार साझे किए और क्रांतिकारियों की एक सेना बनाने का सुझाव दिया. बाद में रासबिहारी बोस ने अपने आस-पास के माहौल को देखते हुए करतार सिंह को लाहौर छोड़कर काबुल चले जाने की सलाह दी. उन्होंने काबुल जाने की तय कर ली लेकिन वज़ीराबाद तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने सोचा कि भागने से बेहतर है मैं फांसी के तख़्ते पर चढ़ जाऊं. इसी सोच को अंजाम देते हुए स्वयं जा कर ख़ुद को पुलिस के हवाले कर दिया. बाद में उन पर कई मुकदमें चले. जिसके परिणाम स्वरूप जज ने उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई.
अंतिम समय भी दिया संदेश:
शहीद होने से पहले इन्होंने कहा था कि 'अगर कोई पुर्नजन्म का सिद्धांत है तो मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि जब तक मेरा देश आज़ाद न हो मैं भारत की स्वतंत्रता में अपना जीवन न्यौछावर करता रहूं'. 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह ने मात्र 19 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया.
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